आत्म तत्व (भारतीय एवं सेमिटिक धर्म के सन्दर्भ में)
संसार के सभी धर्मों के विकास में एक-से सोपान दिखाई पड़ते हैं। आरंभ में वे सभी आदिमानव की सहज प्रवृत्तियों से उत्पन्न होते हैं। जैसे-जैसे बौद्धिक तत्त्व बढ़ता जाता है वैसे-वैसे एक ओर कर्मकांड और दूसरी ओर आध्यात्मिक प्रवृत्ति अभिव्यक्त होती है। इन दोनों के मिश्रण से मत, संप्रदाय और सिद्धांतों का जन्म होता है। धर्म एक ऐसा पद है जिसके द्वारा अनेक अर्थ प्रकट किए जाते है। भारतीय परम्परा में ‘धर्म’ शब्द सदाचार, कर्त्तव्य, नियम, नैतिकता, सामाजिक व्यवस्था व सम्प्रदाय आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। Aatma Tatva
नैतिक सगुणों के रूप में सामान्य धर्म का उल्लेख प्राचीनकाल से ही निरन्तर चला आ रहा है। धर्म के अन्तर्गत अहिंसा, सत्यादि नैतिक गुणों के पालन पर धर्मसूत्रों, स्मृतियों, महाकाव्यों, पुराणों एवं वैशेषिक आदि दर्शनों में विशेष बल दिया गया है। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि प्रकार के आत्मगुण यदि किसी में विद्यमान हो, तब चालीस संस्कारों की आवश्यकता नहीं है।
Aatma Tatva – Bharatiya Evam Semitic Dharma Ke Sandarbh Me (In the Context of Indian and Semitic Religions)
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