लोकावलोकन (लोक जीवन एवं लोक साहित्य सम्बन्धी लेख) : सुपर बाजार में सब्जी खरीदते हुए हम माली के बारे में नहीं सोचते, ऐसे ही कला को जब हम मात्र मंच पर से विशिष्टजनों के लिए प्रक्षेपित या सेवार्पित की जाती हुई जिंस बना देते हैं तब हम कलाकार और उस कला के व्यापक और निर्णायक आर्थिक-सामाजिक मानवीय पहलुओं को नजरअन्दाज कर देते हैं। यदि परम्परा के मूल और मूल्यवान अंशों की रक्षा होनी है, तो सांस्कृतिक संध्याओं के मौसमी ढोल-ढमाके के परे कुछ ज्यादा ठोस, ज्यादा सुचिंतित और ज्यादा सतत प्रयासों की दरकार रहेगी। इन विधाओं, उनकी विशेषताओं और उनसे जुड़े वाद्ययंत्रों को बचाना है, तो उन्हें नये सन्दर्भों में नई सार्थकता देनी होगी। तीन संकट हैं :- संकुचन-विलोपन, अवमिश्रण-पनीलापन, विरूपण-वर्णसंकरण-शायद तीन ही संभव निदान हैं। कुछ चीजों को लगभग ज्यों-का-त्यों बनाये रखने का प्रयास, उनके ही ठीए पर, गुरु शिष्य परम्परा आदि के माध्यम से ‘सम्प्रेषण’ (ट्रांसमिशन)। शेष का अनुकूलन, रूपान्तरण, प्रतिरोपण-एडैप्टेशन, ट्रांसफौर्मेशन, ट्रांसप्लान्टेशन। इन दोनों के लिए असाध्य, शेष मरणोन्मुख की यादगार, पहचान संजोना, शव का परिरक्षण-ममिफिकेशन जैसा, म्यूजियम में रखने जैसा। कुछ लोग पूरी सदेच्छा से, लोकवार्ता को रखने के लिए लोक संस्कृति की संबंधित सीप को बनाये रखने की बात करते हैं। यह अव्यावहारिक दुराशा है। कुछ और उतनी ही सदेच्छा से कहते हैं कि लोक-कला सीखने-सिखाने की चीज नहीं है, रूपान्तरण, अनुकूलन से उसका मूल स्वरूप नष्ट होता है। मत करिये, वह जहां है वहीं अपना मूल स्वरूप लिए-दिए नष्ट हो जाने वाली है। फिर, विरूपण तो बिना एडैप्टेशन, बिना हमारे चाहे भी तो हो ही रहा है।
Lokavlokan (Lok Jeevan Evam Lok Sahitya Sambandhi Lekh)
लोकावलोकन (लोक जीवन एवं लोक साहित्य सम्बन्धी लेख)
Author : Vijay Verma
Language : Hindi
Edition : 2016
ISBN : 9789385593475
Publisher : RG GROUP
₹600.00
Hemant Shesh –
विजय वर्मा का ‘लोक-रेखांकन’ : एक अनथक संस्कृति-यात्रा
सन्दर्भ : उनकी किताब ‘लोकावलोकन’
हेमंत शेष
40/158, स्वर्ण पथ, मानसरोवर, जयपुर-20
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भारत के समकालिक लोक-अध्येताओं में विजय वर्मा (ज. 1935) की अध्ययन-पद्धति पर्याप्त मौलिक है और ‘लोक’ के बारे में उनकी गहरी समझ जितनी मेहनतकश स्वाध्याय से विकसित है, उतनी ही लोकानुराग के प्रति अनन्य प्रेम, निजी स्तर पर परिश्रमपूर्वक संकलित विपुल शोध-सामग्री और उत्सुक-पर्यवेक्षणों से भी। भले ही वह एच.सी. भायाणी, सीताराम लालस, हक्कू शाह, देवीलाल सामर, लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत, अगरचंद नाहटा, कोमल कोठारी और विजयदान देथा आदि-अदि जैसे अनेक सीधे ग्रामीण-समाज के मध्य और ग्राम्य-संस्कारों के साथ जन्म से पैदा हुए व्यक्ति न भी रहे हों, राजस्थान की लोक-संस्कृति के क्षेत्र में अपनी प्रतिबद्ध अंतर्दृष्टि से विजय वर्मा का किया गया विपुल काम, उनकी पचास से भी ज्यादा बरसों की एकांत अकेले-हाथ साधना, विषय के प्रति एकाग्रता और संलग्नता, सब उन के असाधारण परिश्रम और बहुमुखी प्रतिभा का साक्ष्य हैं और वह ‘सिंगुलर’ काम उक्त नामों में से या किसी से भी उन्नीस नहीं है। कुछ बेहतरीन आई सी एस अँगरेज़ प्रशासकों के जैसे सघन विद्यानुराग, भारत-प्रेम, अकादमिक-निष्ठा और गहन अनुसंधानी व्यग्रताओं की याद दिलाते, आरम्भ से ही वह ऐसे स्वनिर्मित शोधार्थी कलावंत और ‘संस्कृतिज्ञ’ रहे हैं, जिनसे कोई भी बहुत कुछ सीख सकता है : चयन-विवेक, सम्पूर्णता या ‘परफेक्शन’ का आदर्श, हर चीज़ की तफसील में गहरे जाने का उनका अध्यवसाय और संकलित विपुल सामग्री का बेहतरीन व्यवस्थापन और उपयोग। जैसा कि किताब की भूमिका में विदुषी कपिला वात्सायन ने भी सूत्र रूप में लिखा है:- “इन निबंधों से स्पष्ट हो जाता है कि ये उनके अनुभव और समर्पण का फल हैं।”
शुभंकर और महत्वपूर्ण तथ्य तो यह भी है कि वह लोक-संस्कृति के प्रति महज़ उच्च-भ्रू अकादमिक, भावुक, अतिवादी, शुष्क-अनुसंधानी या निरी किताबी-दृष्टि नहीं रखते; बल्कि एक सुहृदय, सचेत और संवेदनशील अध्ययनकर्ता की औपचारिक भूमिका का अतिक्रमण करते हुए आज लोक-समाजों में तेज़ी से घुसपैठ करते सांस्कृतिक-सामाजिक बदलावों की तरफ भी इशारा करते और परम्पराओं के अनुरक्षण की ज़रूरत के लिए कई व्यावहारिक और रचनाशील सुझाव भी अपने अध्ययनों में बराबर देते हैं। काश… हमारे विश्वविद्यालय, अकादमियां और सरकारें उन के इन उपयोगी सुझावों पर ध्यान दें… उन्होंने लिखा है:- “मेरा मानना है, यह काल हमारे लोक, उसकी संस्कृति, साहित्य और कलाओं के लिए आपात काल है और यदि इस सब में से जो भी रक्षणीय है, उसके एक छोटे से हिस्से की भी रक्षा करनी है तो हमें परम्परा से हट कर कुछ नया सोचना और करना होगा और शीघ्र…”
यह बात भी उनके उस अनुसंधानी-चित्त के लोकानुराग का एक बड़ा और वैध साक्ष्य है, जो नगरीकरण. औद्योगीकरण आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण आदि २ सामाजिक-बदलावों के कारण संकटापन्न लोक-संस्कृति के यथासंभव अनुरक्षण को हर स्तर पर एक ‘सामाजिक’ ज़िम्मेदारी मानता है । “लोकावलोकन” (2016) राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर से प्रकाशित उनकी नवीनतम पुस्तक है, जिस में विगत बीस वर्षों के दौरान लिखी 22 रचनाएं (17 निबंध/ लेख/ 3 साक्षात्कार और 2 पुस्तक-चर्चाएं ) शामिल हैं और पुस्तक का प्रत्येक भाग वैचारिक स्तर पर लोक-संस्कृति के किसी न किसी पक्ष को ले कर समन्वयात्मक- वैचारिक- शैली में न सिर्फ पठनीय और इतिहासम्मत जानकारियाँ देता है, बल्कि कुछ खरे प्रश्न भी उठाता है । अपनी बात के समर्थन में वह अधिकांश लोक-साहित्य की बहुतेरी अब तक ज्ञात, अल्पज्ञात या अज्ञात पुस्तकों और अन्य कलारूपों से जो भी सटीक सन्दर्भ या उद्धरण देते हैं, वे उनके कथ्य को प्रमाण के रूप में भी सुस्थापित करते हैं । इस किताब की दूसरी और सब से ध्यानाकर्षक बात यह भी है- इस पूरी पुस्तक में विजय वर्मा ने ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ के जटिल अंतर्संबंधों पर सोदाहरण विचार करते हुए यह संकेत सफलतापूर्वक किया है कि दोनों ही- ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ में सदा से एक दूसरे से चेतन-अचेतन में अंतःक्रिया का भाव रहा है । उनके बीच हुए इस परस्पर आदान-प्रदान का प्रमाण अनेक लोक-परम्पराएं: खास तौर पर हमारा लोक-संगीत भी देता आ रहा है !
(यद्यपि बावजूद खुद लेखक की, पंडित विद्यानिवास मिश्र की और हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि की उक्तियों के, मेरे निकट अब भी पूरी तरह यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि ‘लोक’ और ‘शास्त्र’ दोनों के बीच अंतःक्रिया का जरिया लम्बे समय-पटल, इतिहास-पटल पर आखिर था क्या? क्या ये ज़रिये अनेक थे? कौन-कौन से? अन्तःक्रिया के ऐसे अवसर और माध्यम कहाँ-कहाँ, कब-कब पैदा हुए? लोक की सांगीतिक-परंपरा में ‘शास्त्र’ में प्रचलित बातें क्या पहले कलाकार-व्यक्ति (इंडीवीजुअल) स्तर पर ग्रहण की गयीं और बाद में परम्परा के रूप में इन बदलावों को समूहगत स्वीकृति मिली ? या बदलाव समूह की चेतना में पहल आये और फिर परंपरा के तौर पर लोककर्मी प्रदर्शनकारी तक ‘पर्कुलेट’ हुए ? (यही प्रश्न शास्त्र द्वारा ‘लोक’ प्रभाव ग्रहण करने के सन्दर्भ में भी पूछे जा सकता है) लोक और शास्त्र की अंतःक्रिया का अध्ययन, शायद एक पूरी अलग किताब का विषय हो !
हालांकि हर समाज में हर समय जारी जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव किसी भूमिगत अंतर्धारा (अंडरकरेंट) की तरह अदृश्यमान किन्तु निरंतर घटित होते हैं, पर अगर कुछ प्रत्यक्ष है तो निस्संदेह उसका परोक्ष भी अवश्य रहा ही होगा । उस ‘परोक्ष ‘की सांस्कृतिक-नृतत्वशास्त्रीय दृष्टि से पड़ताल शायद आज भी और गहरे अकादमिक-अनुसन्धान की ज़रूरत सामने रखती है) और इस दिशा में यह ग्रन्थ निस्संदेह एक उत्तेजक और आवश्यक-‘प्रस्थान-बिंदु’ है, क्यों कि लेखक ने शास्त्र और लोक के अन्तःसम्बन्धों और लेन-देन का प्रश्न उठा कर ही एक बड़ा इलाका अग्रिम बहस और अनुसन्धान के लिए खोला है ।
उन्होंने भूमिका में लिखा है- “ कहीं शास्त्र ने झुक कर लोक से कुछ ले कर उसे अपने रंग में रंग लिया है , कहीं लोक ने अभ्यास और प्रतिभा से लोक का शास्त्र जैसा कुछ रच लिया है….” ऊपर से एकदम सरल दिखती सी यह बात अपने लक्ष्यार्थ में बड़ी जटिल है –अगर इन दोनों के बीच लेन-देन के अवसरों का इतिहास ढूँढने जाएं – या इनके स्रोत, कारण और ज़रूरत से जुड़े सवालों का जवाब खोजने जाएं…इस आलोक में देखते हुए कि जब दोनों के बीच सीधे संपर्क के आज जैसे अनगिनत उपलब्ध माध्यम, अस्तित्व में थे ही नहीं ! अपने आप में यह विचार तो निस्संदेह वरेण्य है कि दोनों ने एक दूजे से कुछ लिया दिया है पर इस के उत्सों और ऐतिहासिकता संबंधी धुंध को हटाया जाना भी अलग से कोई उपयोगी अकादमिक-उपक्रम होगा, और वह भी विजय वर्मा जी ही जैसे कुछ संवेदनशील विद्वान अनुसंधानकर्ता आगे विस्तारपूर्वक करेंगे ही ।
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जहाँ तक किताब के निबन्धों का सवाल है –लेखक ने वीर-रस के ओजस्वी लोक-काव्यों के गायन की परम्पराओं ‘जांगड़ा’, और ‘सिन्धु’ पर अपने पहले ही लेख “जांगड़ा, सिन्धु और कड़खा : लुप्त होती परम्पराएं” में अनुसंधानात्मक दृष्टि से विचार किया है और सोदाहरण ये भी बतलाया है- वीर-रस गायन की ये परम्पराएं भी अब कैसे क्षीण हो रही हैं ।
उन्होंने लिखा है- “ यह आश्चर्य और खेद का विषय है हमारे शास्त्रीय-संगीतज्ञों ने कभी जांगड़ा गाने के बारे में नहीं सोचा । जांगड़ा और मांड गायन दोनों को शास्त्रीय-संगीत के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया जाना चाहिए ।” इस आलेख में जहाँ जांगड़ा और सिन्धु गायन परम्परा का अधिकांश केंद्र लेखक ने राजस्थान पाया है, वहीं कड़खा गायकी को देश के अनेक भागों- उत्तर प्रदेश, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, बुंदेलखंड, उत्तराखंड, पंजाब- लगभग सारे उत्तर भारत की शौर्य-गायकी परम्परा के अनुसंधानात्मक सन्दर्भों से विश्लेषित किया गया है । इन परम्पराओं में प्रयुक्त ‘छंद’ के बारे में भी इस आलेख में शोध है! चूँकि इन तीनों गायकियों की प्रस्तुति, छंद-विधान और विषयवस्तु आदि में आपस में अंतर होते भी अब ऐसी गायकियों के लिए (इने गिने मंचों के अलावा) सामाजिक या ‘सामरिक’ अवसर ख़त्म से ही हैं, यह चिंता स्वाभाविक है कि क्या ऐसे अवसरों पर गाये जाने वाले ये ओजस्वी लोकगीत भी लोक-कलाकारों के स्मृति-पटल से समय के साथ ही और धुंधले नहीं पड़ते जाएंगे, ठीक वैसे ही जैसे ग्राम्य ‘अवसरों या दिनचर्या के साथ जुड़े अनगिनत लोकगीत उन अवसरों और जीवन-पद्धतियों के बदल जाने या ख़त्म होने पर विलुप्त हो गए ?
“कष्ट-कथा हमारे लोक-संगीत की” कुछ इसी सन्दर्भ में समकालीन समय में लोक-संगीत के विविध पहलुओं और सवालों पर आलेख है । इस किताब के प्रायः सब आलेखों में वह कई प्रसंगों में इस आशय की व्यथा कई रूपों में व्यक्त करते हैं : हमारा लोक अगर सर्वभक्षी बदलावों की चपेट में आता हुआ लोक कलाओं और लोक साहित्य की कई ऐतिहासिक और सरस धरोहरों से हाथ धो बैठ रहा है तो इस आसन्न संकट के रूप भी बहुविध हैं और इनके यथासंभव अनुरक्षण के लिए इन का पाठ्यक्रम स्तर पर औपचारिक-प्रशिक्षण आदि का प्रबंध करने के अलावा सम्पूर्ण ‘लोक-प्रलेखन’ (डॉकुमेंटेशन) दृश्य-श्रव्य इलेक्ट्रोनिक या आधुनिक डिजिटल तरीकों से अधिक व्यापक पैमाने पर किया जाना भी ज़रूरी है ! सवाल यह उठ सकता है हमारी इस काम के लिए तैनात अकादमियां इसे ठीक तरह क्यों नहीं कर पा रहीं ? हो सकता है ये एक अतिशयोक्तिपूर्ण संभावना हो, पर मुझे शक है राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर के पास लोक-संगीत की जितनी रिकॉर्डिंग्स होंगी, उस संकलन से कहीं ज्यादा ‘रेयर’ होंगी अकेले विजय वर्मा जी के निजी-संकलन में !
लोककथाओं में अगर ‘इतिहास’ के कुछ तत्व भी मिलते हैं, या कुछ लोक काव्य किसे ऐतिहासिक घटना को अपनी विषयवस्तु बनाते हैं, तो क्या उनका ‘उपयोग’ या अध्ययन, इतिहास के परवर्ती औपचारिक लेखन/ अध्ययन में कैसे किया जा सकता है, इसी प्रश्न को केंद्र में रखते हुए एक आलेख है- “लोकगाथा और इतिहास: एक अध्ययन” जो पश्चिमी राजस्थान, गुजरात और सिंध की कुछ लोकप्रिय लोककथाओं में आये ऐतिहासिक चरित्रों : लाखा फूलाणी, जगदेव परमार, राव खेंगार, जलाल और बबूना जैसे पात्रों के उपलब्ध जीवन-चरित्र को आधार बना कर लिखा गया है । ये इतिहास-पात्र राजस्थान, गुजरात, सिंध और अन्यान्य प्रान्तों के लोक-साहित्य : गाथाओं का विषय रहे हैं । इस आलेख में स्पष्ट किया गया है- इन इतिहास-चरित्रों को लोक-गाथाओं में अलग अलग ढंगों से निरूपित किये जाने के रूप क्या-क्या और क्या कारण रहे हैं ? लोक-परम्परा को इन लोगों की जीवन- घटनाओं के आलोक में देखा गया है, जिसका निष्कर्ष लगभग यही है कि लोक-गाथाएं भी इतिहास के लिए ‘उपयोगी स्रोत’ तो हो सकती हैं किन्तु उनको ‘इतिहास’ मानना भ्रामक है । (यह भी ‘पेन्टिंग एज़ अ सोर्स ऑफ़ हिस्ट्री’ जैसा ही एक समानांतर-क्षेत्र है, पर यह संक्षिप्त जानकारी प्रसंगवश अपेक्षित थी कि कुछ हद तक गौरीशंकर हीराचंद ओझा और कर्नल टॉड जैसे इतिहासज्ञों के अलावा, क्या किसी और मान्य सांस्कृतिक-इतिहासकार ने अगर अंशतः ऐसा किया, तो क्यों ! ) कर्नल टॉड का तो बहुत सा इतिहास लोक-गाथाओं. भाट-चारणों, बार्ड्स, लोक-कथाकारों और अनगिनत मौखिक स्रोतों से पाई जानकारी के बाद ही लिपिबद्ध हुआ ….यद्यपि विजय वर्मा ने आगे स्वयं ही अंकित किया है- “ लोक गाथाओं आदि का उद्देश्य न तो इतिहास बखानना है , न भविष्य के समाजशास्त्रियों के लिए उपयोग की सामग्री को संग्रहीत–अग्रेषित करना । मूलतः इन कथाओं का उद्देश्य तो मनोरंजन करना है, जिस के लिए कथा को मांड कर, चमत्कारिक और अलौकिक घटनाओं से युक्त कर के, आकर्षक ढंग से कहना ज़रूरी है । …”
जहाँ उन्होंने एक पाठक-समीक्षक के तौर पर अपने समकालीनों देथा जी (बिज्जी) और कोमल कोठारी के सांस्कृतिक-अवदान का ‘विश्लेषण’ भी किया है- अपने एक सुदीर्घ लेख- “लोक-कथा और विजयदान देथा का कृतित्व” में और ‘कोमल कोठारी होने का मतलब’, शीर्षक से कोमल जी के योगदान और उनकी सीमाओं पर, हेतु भारद्वाज और गोविन्द माथुर से अपनी मौखिक बातचीत में ! किताब की तीनों चर्चाएँ सूचनापरक होने के अलावा कुछ ज़रूरी सवालों पर भी उंगली रख पायी हैं….
‘लोकवार्ता और आज का भारतीय परिवेश’ और ‘नौटंकी : कीर्ति को लीलता कलंक” शीर्षकों से इन्हीं साक्षात्कर्ताओं से लेखक की वे बातचीत (परिचर्चाएँ) भी शब्दबद्ध है जिसमें विजय वर्मा समाज, समय, लोक, कला-रूपों, अनेक अवधारणाओं और लोक-कलाकारों के नामों को समेटते अपनी बहुपठित विशेषज्ञता से अपने कुछ मूल्यवान निजी मंतव्य भी सामने लाते हैं । यह प्राचीन से ले कर आधुनिक तक की यात्रा है, ठेठ लोकनाट्यों से ले कर नए ‘एब्सर्ड थियेटर’ तक की । वह इस साक्षात्कार में वासुदेव बासम, श्रीकृष्ण पहलवान, त्रिमोहन लाल, लालमणि लम्बरदार, अमानत, चुन्नीलाल, रामनारायण अग्रवाल, किशनलाल, पंडित दीपचंद, जोगीश्वर बालकराम, अलीबक्ष, बंशीलाल, मौलाना गनीमत, नथाराम गौड़, हुकुम चन्द वार्ष्णेय, अकील, पन्नालाल, गुलाब बाई, कृष्णा बाई, गिरिराज महाराज , देवीलाल सामर, उगमराज, सिद्धेश्वर अवस्थी, महादेव स्वरूप भटनागर, मास्टर रामचंद्र, रग्घू जी, आदि जैसे पचासों नामी / अब तक अज्ञात रहे लोक कलाकारों, लेखकों, प्रदर्शनकर्ता शक्सियतों की चर्चा, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गहराई से करते हैं और नौटंकी के अलावा भी कई कला-रूपों के सम्बन्ध में हेतु भारद्वाज और गोविन्द माथुर जैसे साक्षात्कर्ताओं का पर्याप्त ज्ञानवर्धन भी । हमें स्मरण है जयपुर से प्रकाशित दैनिक ‘पत्रिका’ और साप्ताहिक ‘इतवारी-पत्रिका’ में ‘चतुरंग’ और ‘गोरबंध ’ स्तंभों में संगीत और नाटक पर लिखीं उनकी अनेक तत्वबोधक समीक्षाएं ….
मेवात के लोक-संगीत पर इस प्रकाशन में एक सोदाहरण लेख है : ‘ अरे, के भाषा खुर्री के गीत रसाल : मेवात का लोक-संगीत”। इस में वह तीन राज्यों के लगभग सात हज़ार वर्गमील में फैले इलाके मेवात की ‘बात’, महिला-गीत, ‘रतवई’, ‘धन्गलवाटी टप्पे’, छंद बारामासी’ , ‘पंडून कौ कड़ा’आदि बहुत सी गायकियों और लोक-संगीत विधाओं की चर्चा (अधिकांश अपने स्वयं के श्रोतानुभव से ) करते हुए पाठक का तार्रुफ़ राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सुदूर आंचलिक ग्रामों के ‘दमदार’ सांस्कृतिक पक्ष से करवाते हैं । जब कि ‘लोक में बारहमासा, बारहमासा में लोक’ लगभग 800 साल पुरानी विरह-गीतों की परंपरा पर एकाग्र लेख है । विरह की वेदना हमारे पुराने नागरी साहित्य में भी, और लोक-काव्यों में तो इतनी इंटेंसिटी से आती रही है कि बस ! मिलन और वियोग वैसे भी विश्व साहित्य की अनगिनत रचनाओं की प्रेरणा रहे हैं….लावणी, बुन्देली लोकगीत, ब्रज के रसिया, होली-गीत, गाली-गीत, फाग (धमार), ख्याल, जयपुर के तमाशा, लोक-गाथाओं, चैत , कजरी , सांग, ख्याल रंगत-जिकड़ी मेवाती संगीत, ब्रिज लोकगीत, तुर्रा कलंगी, दोहे, छंद न जाने कितनी ही विधाओं में ये विरहाग्नि जली है और वर्मा जी हर बार उन आंसुओं हिचकियों और विरह की अग्नि की तपिश खोजने जाने कहाँ- कहाँ नहीं पहुंचे !
‘हमारा लोक-साहित्य: दूसरा पहलू’ लेख बतौर पाठक, लोगों के लिए ‘नया’ है ! लेखक का अन्वेषक, आपादमस्तक एक सिद्ध लोकानुरागी विषय-विशेषज्ञ होते हुए भी इस निबंध में यह सफलतापूर्वक और विचारणीय ढंग से स्थापित कर सका है कि अगर भारतीय ग्राम्य समाज में व्याप्त अनेकानेक “कुरीतियों’ की जड़ें बहुत प्राचीन और बेहद गहरी हैं, तो वे हमारे लोक-साहित्य और लोक-कला रूपों में में भी न सिर्फ साफ़-साफ़ प्रतिबिंबित हैं बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से ‘सुसंस्थापित’ भी हैं । बहुत सा लोक-साहित्य जहाँ भाग्यवाद और रूढ़िवादिता का ‘समर्थन’ या ‘पोषण’ करता दिखता है वहीं जातिवाद, अंधविश्वास, भूत-प्रेत-पिशाच-डाकन संबंधी मान्यताएं, शकुन-अपशकुन-विचार, बाल-विवाह, किसी निस्संतान के प्रति घृणा, कन्या-भ्रूण-हत्या, सती-महिमामंडन, छुआछूत और वर्ण-असमानता, ऊँच-नीच का विचार, बलि-प्रथा, विधवा-पुनर्विवाह-निषेध जैसी अनेकानेक घोर सामाजिक-बुराइयों को लोक-मानस ने पूर्वजों की परम्परा के नाम पर न केवल अपने संस्कारों में जन्म से आत्मसात् ही किया है बल्कि अपनी कलाओं में अनेक रूपों में निरूपित भी किया है, जो प्रकारांतर से आने वाली (परवर्ती ) पीढ़ी के लिए भी मानसिक कुसंस्कारों का स्रोत और उन कुरीतियों का जन्मदाता या पालनहार है !
इस समीक्षक के विचार से भी भी यह लोक के निंदनीय सामाजिक-चरित्र का वह अंतर्विरोधी पहलू निस्संदेह है जो एक तरफ तो देवताओं ही की तरह (या कभी तो उनसे भी ज्यादा) अपनी पचासों लोक-देवियों (उदाहरणार्थ : राजेश्वरी माता / शिलादेवी / कैलादेवी /आवड़ माता / सुगाली माता / तणोटिया माता/ विरात्रा माता/ शीतला माता/ बाण माता/ नकटी माता/ अम्बिका माता/ आशापुरी माता/ नागणेची माता/ सती माता/तुरताई माता/ जिलाणी माता/ ब्राह्मणी माता /भदाणा माता /शाकम्भरी माता/ बड़ली माता /जमुवाय माता /आसावरी माता/ अन्नपूर्णा माता/आमजा माता/चामुण्डा माता/ दधिमति माता/कालिका माता/कुशाल माता/त्रिपुर सुन्दरी/ लुटियाला माता/तुलजा भवानी/नारायणी माता /सच्चिया माता /कालका माता/ ज्वाला माता/ शारदा देवी/ घेवर माता/ सीमल माता / छींक माता/ हिचकी माता/ क्षेमकारी माता /अम्बा माता/ आसापुरी माता/ छिंछ माता /इंदर माता/ आई माता/ करणी माता/ जीण माता आदि-आदि) को अनन्य भक्ति-भाव से पूजता है, उन्हें कुलदेवी तक मान कर उनके मंदिर बना कर ‘दंडोती-पर्कम्मा’ करता नहीं थकता, वहीं वह समूची स्त्री-जाति के लिए “रांड’ ‘रंडी’ ‘कु-नार’ ‘तिरिया-चरित्र’ जैसे अनेक आपत्तिजनक अपशब्द बेहिचक लिखता बोलता और सार्वजनिक रूप से गाता आया है! चूँकि लोक-साहित्य के अनाम रचयिता जन्म से ऐसे ही ‘फ्यूडल’ संस्कारों में ही पैदा हुए, दीक्षित किये गए , बढ़े और पले, लिहाज़ा ये सब भी पहले अचेतन में उनकी मानसिकता फिर उनके द्वारा रचित कला-रूपों का भी स्वाभाविक हिस्सा बन गया होगा ! किन्तु इस लेख में विजय वर्मा ने ‘बगडावत-महाभारत’ से ले कर ख्यालों, ढोल, रसिया, धमाल, बात, गाथा, कथा, गालीबाज़ी, आदि के अलावा ‘फुटपाथिया साहित्य’ सब में से जिन स्थलों को सोदाहरण रेखांकित किया है वह लोक में सामान्यतः प्रचलित एक और आपत्तिजनक बुराई : ‘स्त्री-अवमानना’ के पक्ष को सामने लाते हैं…इस किताब में यह लेख भी निस्संदेह प्रचलित से भिन्न है और साबित करता है कि लेखक, लोक-जीवन के हर पक्ष का अंधभक्त नहीं है, न स्तवन के भाव से वह लोक के हर पहलू का समर्थक : सिक्के के इसी ‘दूसरे’ पहलू, उसकी ‘कमजोरियों’ को भी सामने लाना वह यहाँ बतौर विषय बरतते हुए भी एक बौद्धिक-दायित्व समझ रहा है !
“पंजाब के प्रसिद्ध लोककथा-नायक राजा रिसालू (या रसालू) का चरित्र बड़ा विचित्र और विरोधाभासों से भरा हुआ है । एक ओर वह जती-सती, ईश्वर-भक्त, गुरु गोरखनाथ का प्रिय शिष्य, करामाती, प्रजावत्सल धीरोदात्त नायक है , तो दूसरी ओर वह कहीं कहीं कामुक, स्त्री-लोलुप, और प्रपंची भी दिखाया गया है । उस से जुड़ी हुई कथाएँ पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उन से जुड़े राजस्थानी भू-भागों में बहुत प्रचलित रही हैं , गेय गाथा-गीतों और किस्सों के रूप में और उनके आधार पर लोकनाट्य भी रचे गए हैं ।” ‘राजा रिसालू : विभाजित व्यक्तित्व का विस्तृत गाथाचक्र’ शीर्षक से लेखक ने इस नायक पर अनेक उपलब्ध स्रोतों को खंगालते हुए उस से सम्बद्ध कई अलग-अलग गाथाओं में उसके जीवन की घटनाओं, चरित्रों के साम्य और भिन्नता – दोनों का उल्लेख किया है और यह विस्तृत निबंध प्रकारांतर से एक सम्पूर्ण सम्प्रदाय (नाथ संप्रदाय) के वृहत्तर ऐतिहासिक-धार्मिक और सामाजिक परिवेश का अध्ययन भी बन जाता है । वर्मा जी ने अंकित किया है- “ (राजा रिसालू की कहानी में ) अलग-अलग क्षेत्रों में, इतने-इतने ढंग से (इन) प्रवादों का आना ज़ाहिर करता है कि लोक-मानस में, रिसालू के चरित्र को ले कर कोई दुविधा अवश्य रहती आई है- कहीं गहरे में, कोई “शिजोफ्रेनिया’ वाली, विभाजित व्यक्तित्व जैसी स्थिति उस के साथ जुड़ी हुई है ।” मनोविज्ञान के विविध पहलुओं पर रचनात्मक-लेखन करने वाले हमारे कुछ समकालीन कथाकार सैंकड़ों साल पुराने लोक-साहित्य में इस प्राचीन ‘शिजोफ्रेनिक ’ नायक के बारे में वर्मा साहब का लेख पढ़ कर शायद ताज्जुब कर सकते हैं, जो इस बात का भी प्रमाण है कि हमारी कई लोक-कथाओं में मानव-मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, रोमांस, तिलिस्म-जादू, धार्मिकता, कथा-सन्देश, और शौर्यगाथा का कैसा मिला जुला, कल्पनाशील, जटिल और सान्द्र कीमिया भी है और यह देख पाना– मिल जाना हिन्दी में उन जैसे मौलिक, विरल और दृष्टिवान् अनुसंधानियों के ज़रिये ही संभव हुआ और हो रहा है !
वर्मा जी ने ‘वाणी प्रकाशन’ की 2002 में आई हमारी मित्र विभा रानी की एक किताब ‘गोनू झा के किस्से’ पर समीक्षात्मक टिप्पणी के बहाने लोक की एक समूची विशिष्ट कथा-परम्परा पर विहंगम दृष्टि डाली है ‘ ये मसखरे सुजान’ शीर्षक के अपने आलेख में जिस में वह केवल मैथिल गोनू झा के ही नहीं, आन्ध्र के तेनाली राम, बंगाल के गोपाल भांड, अकबरकालीन बीरबल, मध्य-एशियाई मुल्ला नसीरुद्दीन, राजस्थान के तीडो राव, आदि जैसों की विट, चतुराई, प्रत्युत्पन्नमति, हास्यप्रियता, शैतानियों, बुद्धिमत्ता, साहस, तार्किकता, परदु:ख कातरता, विवेकशीलता आदि गुणों को को उजागर करने वाले सरस किस्सों में से कुछ का परिचय करवाते हुए लोक-मन की सहज प्रहसनप्रियता और किस्सागोई की उनकी समृद्ध परम्परा को भी रेखांकित करते हैं ।
लेखक की विविध अभिरुचियों और विषय-वैविध्य का प्रमाण इस बात से मिलता है कि जहाँ संख्याओं –को ले कर किताब में अगर तीन लेख हैं, जो भारतीय-जीवन लोक-साहित्य और अनेक संस्कृतियों में इन संख्याओं 12, 14, और 7 के समाजशास्त्रीय, सांस्कृतिक और लोक-सन्दर्भों का रोचक और जानकारीपूर्ण अध्ययन हैं, एक और सम्बद्ध आलेख है- “संख्या सरस सुहावनी : लोकजीवन और साहित्य में संख्याएं” शीर्षक से । ‘सात के साथ साथ : भारतीय जीवन और साहित्य में सात की संख्या” को ठेठ ऋग्वेद से ले कर आज की कृष्णा सोबती के उपन्यास तक रोचक शैली में खोजा गया है ! ‘बात बात में बारह…..” ऐसी ही अन्य दिलचस्प रचना है ।
भारतीय जीवन और साहित्य में बाग़(उद्यान) सम्बन्धी कुछ संदर्भ ”महक रही फुलवारी हमरी’ भी इसी तरह का एक आलेख है! बाग़-बगीचे जैसे विषय पर भी शोधकों का शायद ध्यान बहुत कम गया है किन्तु यह आलेख है अनेक संस्कृत ग्रंथों, रामचरितमानस, राजस्थानी, पंजाबी और हरयाणवी लोक-कथाओं के अलावा उर्दू-शायरी और नगरों के उद्यान-संबंधी अनेक उद्धरणों से परिपूर्ण । संख्याओं वाले और बाग़-बगीचे वाले लेखों से गुज़रते हुए मुझे लगा- लोक-कला में जैसी ‘विविधता’ है, कुछ-कुछ वैसी ही है- इस पुस्तक की ‘विषयवस्तु’ में भी ! एकरसता के विरुद्ध विषय-वैविध्य के प्रति यह लेखकीय रुचि उनकी अपनी ‘रेंज’ की सूचक भी है ।
जब कि पीयूष दईया /डॉ. श्रीलाल मोहता द्वारा संपादित पुस्तक “लोक का आलोक’ की समीक्षा ‘लोकावलोकन’ के बहाने वह समीक्ष्य पुस्तक के लेखों की विषयवस्तु पर एकाग्र बने रह कर भी लोक संबंधी कुछ अनुषंग मुद्दों पर एक दृष्टि डालते हैं । यहाँ पं. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. इन्द्रदेव, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. अय्यप पणिक्कर, कोमल कोठारी, पंडित कुमार गंधर्व, नंदकिशोर आचार्य, चंद्रप्रकाश देवल आदि के आलेखों का सम्यक ‘मूल्यांकन’ है । समीक्षा में वह यथास्थान अपनी तरफ से भी विषय से सम्बद्ध अनेक सूचनाएं और जानकारियां जोड़ते चलते हैं । अगर पंडित कुमार गंधर्व जैसों के किसी वक्तव्य से उनकी असहमति है तो भी वह इसका उल्लेख करने से नहीं चूकते ….डॉ. श्यामाचरण दुबे के लेख ‘लोक कलाओं का भविष्य’ के सन्दर्भ में उन की टिप्पणी है- “हमारी पारंपरिक संस्कृति और कला के कुछ हिस्से , जैसे हस्तशिल्प और लंगों- मांगणियारों का संगीत भी आलंबन पा रहे हैं, लेकिन कुल मिला कर हमारी लोक-संस्कृति, जैसा उसे हम जानते आये हैं, खास तौर पर उसके गैर-व्यवसायी या कम व्यवसायी हिस्सों के दिन अब लद गए हैं । गांवों में उनके अवशेष बाकी हैं, लेकिन गांवों के बदलने के क्रम में वे अवशेष भी समाप्त या बुरी तरह विरूपित होते जाएंगे ।”
पुस्तक में कलेवर की दृष्टि से अपेक्षाकृत जो बड़े आलेख हैं उनमें हैं- ‘फुटपाथिया साहित्य’ ( 3 खंड) और ‘लोक में अश्लीलता के आयाम’ ।
प्रसंगवश इस समीक्षक को यह लिखते हुए संतोषमिश्रित गर्व है – कुछ अन्य लेखों जैसे ‘ये मसखरे सुजान’ के अलावा ‘फुटपाथिया साहित्य’ और ‘लोक में अश्लीलता के आयाम’ भी इन पंक्तियों के लेखक द्वारा संस्थापित-सम्पादित त्रैमासिक ‘कला-प्रयोजन’ में ही पहले-पहल कई वर्ष पूर्व सचित्र प्रकाशित किये गए थे । ‘फुटपाथिया साहित्य’ का इतना सुदीर्घ और सोदाहरण विवेचन किसी अन्य लोक-अध्येता ने इतने विस्तार और इतने कोणों से किया हो, मुझे याद नहीं । भूमिका-लेखक डॉ. कपिला वात्स्यायन ने भी लिखा है- “ यह प्रतीति संतोषदायक है कि लेखक की दृष्टि सीमित, एकपक्षीय और ‘एकेडेमिक’ न हो कर खुली, व्यावहारिक और बहुआयामी है। इस के चलते वह हेय समझ कर छोड़ दिए जाने वाले लेकिन प्रभूत मात्र में रचे गए और बहुत पढ़े गए ‘फुटपाथिया साहित्य’ को भी अपना विषय बनाता है।”
विवेकी राय के एक लेख के उद्धरण से शुरू इस लम्बे आलेख में लेखक ने ‘फुटपाथिया साहित्य’ की सिर्फ परिभाषा ही नहीं दी, बल्कि इस विषय पर लिखने के अपने उपक्रम का औचित्य भी इन शब्दों में व्यक्त किया है- वास्तव में ऐसी बहुत सी छोटी बड़ी किताबें रहती आयी हैं, जिन्हें आम प्रबुद्ध शहरी पाठक चवन्नी-छाप और फुटपाथिया साहित्य मानता आया है । यह भी सही है कि इनमें से बहुत सी पुस्तकें बहुत मामूली गुणवत्ता वाली हैं , सामग्री और मुद्रण, दोनों दृष्टियों से। इस के अलावा , जैसा विवेकी राय ने भी माना है- “यह उन्नयन करने वाला या कोई नवीन दिशा –दृष्टि देने वाला भी साहित्य नहीं है : यह साहित्य – जड़ता का साहित्य है , गति-शून्यता का , रूढ़ियों का ।” लेकिन इस के अलावा इस के कि यह देश की अधिसंख्य जनता का साहित्य रहा है और उस में स्तरीयता भी मिलती है, यह भी महत्वपूर्ण है कि साहित्य की कुछ विधाओं और उन में सृजन करने वाले लेखकों का परिचय हमें केवल इन पुस्तकों या पुस्तिकाओं से ही मिल सकता है । उदाहरण के लिए हम तुर्रा-कलंगी या लावणी दंगल के काव्यान्दोलन के अंतर्गत रचित विपुल सामग्री को ले सकते हैं जो इन्हीं पुस्तकों में उपलब्ध है । जिसे हम लोक का कस्बाई विस्तार कह सकते हैं वह, मुद्रित रूप में इन्हीं प्रकाशनों में मिलेगा। इस के अतिरिक्त समाजशास्त्र की दृष्टि से भी इस साहित्य का बड़ा महत्व है और यह अपने समय के समाज को समझने के लिए अपरिहार्य दृष्टि उपलब्ध कराता है । असल में इन पुस्तकों में हमको तत्कालीन सामाजिक जीवन, सोचने समझने के तरीकों और साहित्य के तैरते हुए हिमखंड- आइसबर्ग के उस डूबे हुए ८ बटा १० भाग के दर्शन होते हैं जो शिष्ट, नागर साहित्य में आम तौर पर उपेक्षित ओर ओझल रहा है।….” लेखक ने अपने निजी पुस्तकालय में संग्रहीत ऐसी ही सेंकड़ों छोटी-बड़ी किताबों के प्रकाशकों, लेखकों, और फुटपाथिया साहित्य की विषयवस्तुओं पर गहन प्रकाश डालते अपनी उक्त धारणा को सोदाहरण संपुष्ट किया है । यह भी लोक-साहित्य का वह पक्ष है जिस पर हिन्दी में बहुत कम या लगभग नहीं ही लिखा गया है । यह सूचना भी मजेदार है कि भारत से बाहर कई विदेशी अंतर्राष्ट्रीय पुस्तकालयों तक में इसी तरह की पचासों नहीं, कई सौ पुस्तकें संग्रहीत और अभिलेखित हैं जिसका संक्षिप्त उल्लेख इस निबंध में आया है ।
‘लोक में अश्लीलता के आयाम’ भी यकीनन इतना ही नया और मूल्यवान अध्ययन है । पोर्नोग्राफिकल, एरोटिक, सेक्सी, सेंसुअल या वल्गर ‘साहित्य’ (?) के प्रति शहरी पाठक के नैतिक दोगलेपन, छद्म, और पाखण्ड के विपरीत लोक संस्कृति में यौन / काम / यौनेंद्रिय / नग्नता आदि को लेकर जो अकुंठित जिज्ञासापूर्ण ‘हास्य-भाव’ है : वह उस अर्थ में उतना ‘अश्लील’ ‘घृणास्पद’ और ‘विकर्षक’ नहीं जिस अर्थ में आधुनिक शहरी समाज में प्रचलित इंटरनेट की असंख्य साइट्स पर उपलब्ध अश्लील पोर्न-! यौन–संवेगों और काम-संबंधी जिज्ञासाओं की संयमित-निष्कृति के लिए लोक के अपने सांस्कृतिक-माध्यम हैं- कथाएँ , किस्से, कहावतें, कवित्त, गालियाँ या गाळ, सीठणा, लोकगीत, नाटिकाएं, धमालियाँ, जोगीड़े, कबीर, चौताल, पहेलियाँ, ख्याल, स्वांग, लोक-गाथाएं, लीलाएं, चौताले, दादरे, दोहे, धमार, फाग; न जाने कितने ही रूप – जिन्हें वर्मा साहब ने एक के बाद एक बड़ी ही कुशलता से खोजा और एक गंभीर सांस्कृतिक अध्ययन के रूप में उदाहरणों समेत पिरो दिया है ! लोक के इस मनोरंजक किन्तु ‘अंधकारमय’ पक्ष पर हिन्दी में आलेख लगभग नहीं या बहुत ही कम हैं….
इतने गुणी. ज्ञानी, बहुकलाविद् और प्रतिभाशाली विचारक होने के बावजूद अपने स्वभाव की विमम्रता, निरभिमान और वैयक्तिक सरलता के चलते विजय वर्मा ने अपने इस ग्रन्थ का नामकरण ‘लोकावलोकन’ ज़रूर किया है किन्तु हमारे विचार से मात्र अवलोकन से कहीं ज्यादा और गहरा उनका यह बहुत उपयोगी ‘हस्तक्षेपी’ उपक्रम है , जिसके केंद्र में आया ‘लोक’ अपनी सम्पूर्ण रंगमय और भदरंग छटाओं के साथ एक सजग, अनुभव-समृद्ध वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी की कलम से आत्मीयतापूर्वक से इस तरह भी सामने आ सका है !
जब जब भी भविष्य में लोक पर एकाग्र कुछ संग्रहणीय पठनीय और मननीय ग्रंथों का ज़िक्र होगा –विजय वर्मा की यह किताब ‘लोकावलोकन’, उन किताबों में सब से पहले और समुचित आदर के साथ शामिल की जाती रहेगी….
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*‘लोकावलोकन’ : भारतीय लोक-जीवन एवं लोक-साहित्य संबंधी लेख : विजय वर्मा : (भूमिका : कपिला वात्स्यायन):
राजस्थानी ग्रंथागार, सोजती गेट, जोधपुर, प्रथम संस्करण : 2016 : पृष्ठ-400 (+) : मूल्य : 600/- रुपये