राजस्थान का समृद्ध लोक साहित्य :
गांवों में सहकार की भावना को सतत रूप से जिंदा रखने के लिए भी ‘राम-भणत’ सहायक तत्व है। सहकार भाव को सार्थक करने वाली परंपरा का नाम है ‘ल्हास’। उल्लास से ही ल्हास शब्द बना है। ल्हास ऐसे सामूहिक श्रम का नाम है, जो दूसरे की मदद के लिए निशुल्क किया जाता है। गांवों में किसी के घर में गमी हो जाए, कोई लंबी बीमारी हो जाए, ऐसी स्थिति में गांव के चारपांच मौजीज व्यक्ति अपनी ओर से पहल करके पूरे गांव से उस परिवार की मदद के लिए गुहार लगाते हैं तथा प्रत्येक घर से एक-एक आदमी निशुल्क उस जरूरतमंद के खेत में काम करने नियत दिवस पर आता है। पूरे गांव के सामूहिक श्रम और उसके पीछे सहयोग की पवित्र भावना के कारण लोग खूब मेहनत से काम करते हैं। अपनी ओर से अपने मन से किसी के सहयोगार्थ उल्लास के साथ किया जाने वाला यह सामूहिक श्रम ‘ल्हास’ कहलाता है। ल्हास आदि के समय गांव के सभी भणत गायक एक खेत में होते हैं। उस दिन सबकी कला एवं कंठ की परीक्षा होती है।
– श्रमप्रधान राजस्थानी लोकगीत एवं उनका सौंदर्य निबंध से
जहां तक प्रगतिशील चेतना का प्रश्न है जिस तरह अंधेरे की कोख में उजाला जन्म लेता है उसी तरह परंपरा की कोख से ही प्रगतिशीलता का जन्म होता है। प्रतिरोध एवं प्रतिकार के स्वर से प्रगतिशीलता का गहरा नाता है। समय की जड़ता को तोड़कर उसमें चेतना का शंखनाद करने वाले स्वर को प्रगतिशील स्वर कहा जाता है। परंपरा जब जड़ एवं रूढ रीति-रिवाजों की जकड़न में फंसती नजर आती है तो प्रगतिशील चेतना उसे ललकारने को विवश हो जाती है। इस दृष्टि से देखें तो डिंगल काव्यधारा में वह चेतना सदैव विद्यमान रही है जो समय की अनीति पर बिना किसी भेदभाव एवं पक्षपात के करारी चोट करने की रचनात्मक जवाबदेही का अहसास करती है। इस काव्यधारा ने यथार्थ के ऊबड़खाबड़ रास्तों पर साहसी कदम बढ़ाते हुए विषम परिस्थितियों से सीना तानकर टक्कर लेने की क्रांतिकारी पहल की है।
– डिंगल काव्यधारा में प्रगतिशील चेतना निबंध से
ये लोक-कहावतें किसी आशा, अपेक्षा, चाहत या डाह से नहीं बनीं। ना ही किसी की खुशामदगी या निंदा करना इनका उद्देश्य रहा है। ये किसी के कहने से भी नहीं बनी तो इनको बनाने का श्रेय लेने की कोशिश भी किसी ने नहीं की। लोकवांग्मय की विशिष्टता भी यही है कि इसके सृजक को कभी यह गुमेज हुआ भी नहीं कि उसने कुछ नया किया है। वह मानता है कि उसकी अनुभूति व्यष्टिपरक नहीं होकर समष्टिपरक है अत: उसने जो कुछ लिखा है, उसमें उसका स्वयं का कुछ नहीं है। वह मानकर चलता है कि आलोच्य संदर्भ को कोई दूसरा भी लिखता या लिखेगा तो वह भी इसी भावभूमि से जुड़ा हुआ होता या होगा, अत: वह अपनी मौलिकता का दावा कभी नहीं करता और अपनी ही सृजना को लोक की संपति कह कर लोक को सहर्ष समर्पित कर देता है, बिना किसी ‘नेमफेम’ की चाहत के।
– राजस्थानी लोक कहावतों का सौंदर्यबोध निबंध से
इस दृष्टि से मानवता के प्रबल पैरोकार गुरु जांभोजी की वाणी के नीति-कथनों की निर्झरणी का सुमधुर निनाद आज भी न केवल प्रासंगिक है वरन परम आवश्यक जान पड़ता है। जन साधारण अथवा अपने प्रिय भक्तों के हितार्थ रचित गुरु जंभेश की वाणी के पदों में शब्दाडंबर नहीं बल्कि सार तत्त्वों की सहज अभिव्यक्ति हुई है। सत्य-साक्ष्य अनुभूत गुरुवाणी की नीति-उक्तियों में सर्वत्र हितेषणा का भाव लक्षित होता है। आज की आर्थिक आपधापी एवं भौतिक चकाचौंध में किंकर्तव्यविमूढ़ हुई मानवता को बचाने, संवेदनहीनता से छुटकारा पाने तथा संकीर्णता के नानाविध घेरों से बाहर निकलकर मानवजीवन के असली लक्ष्य की पहचान करवाने के लिए गुरु जंभेश की वाणी अचूक औषधि साबित हो सकती है।
– जंभवाणी के नीति कथनों की वर्तमान प्रासंगिकता निबंध से
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