Pratap Charitra

प्रताप चरित्र
Author : Kesari Singh Barahath
Language : Hindi
Edition : 2012
ISBN : 9788186103203
Publisher : Rajasthani Granthagar

189.00

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प्रताप चरित्र : महाराणा प्रताप वीरता की उस भावना के प्रतीक हैं, जिसके अधीन जातियाँ अन्यायियों की सत्ता के विरूद्ध बगावत करती हैं और मनुष्य जुल्मों के आगे गर्दन झुकाने से इनकार कर देता है। किन्तु, दुःख की बात है कि हिन्दी में प्रताप-साहित्य की वैसी सृष्टि नहीं हो सकी, जैसी होनी चाहिए थी। कारण, शायद यह था कि जब महाराणा प्रताप का उदय हुआ, तब देश में इतना भी जीवट नहीं था कि लोग उन्हें राष्ट्रीय वीर के रूप में पहचान सकें अजब नहीं कि तुलसीदास उनके समकालीन रहे हों, किन्तु हिन्दी के इस राष्ट्रीय कवि ने अपने समय के सबसे बड़े राष्ट्रीय शूरमा का नाम भी सुना था या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता और उसके बाद रीतिकाल का जो समय आया, उसमें भी हिन्दुओं के भीतर वह दृष्टि उत्पन्न नहीं हो सकी, जिससे जातियाँ अपने राष्ट्रीय गौरव के प्रतीकों की पहचान करती हैं। तब भी भूषण और लाल कवि ने राष्ट्रीय वीरता की जो झाँकियां दिखलाईं, वह सिर्फ इसलिए कि शिवाजी और छत्रसाल उनके समकालीन और आश्रयदाता थे। अगर हिन्दू-राष्ट्रीयता की भावना उनके भीतर जगी होती, तो कोई कारण नहीं कि उनका ध्यान प्रताप के उज्ज्वल चरित्र की ओर नहीं जाता।

रीतिकाल में वीर-काव्य नहीं लिखे गये, यह बात भी नहीं है। सबलसिंह चौहान का महाभारत, गुरूगोविन्दसिंह का चंडीचरित्र, श्री मुरलीधर का जंग नाम (फर्रुखशियर और जहाँदार शाह के युद्ध पर), लाल कवि का छत्र प्रकाश, अलवर के जोधराज कवि का हम्मीर रासो, ग्वाल कवि का हम्मीर हठ, चंद्रशेखर बाजपेयी का हम्मीर हठ तथा गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव कवियों द्वारा सम्मिलित रूप से रचित महाभारत काव्य इसी काल की रचनाएँ हैं। असल में औरंगजेब के खिलाफ उत्तरी और दक्षिणी भारत में जो विद्रोह चल रहा था, वह हिन्दुओं के भीतर कसमसाती हुई किसी विद्रोही भावना का ही सूचक था और साहित्य पर उसका प्रभाव भी पड़ रहा था। किन्तु, यह जागरण शरीर का जागरण था, जो तलवार भाँज कर समाप्त हो गया। हिन्दुओं के मस्तिष्क में अभी वह तूफान नहीं उठा था, जिसके वेग से पुराने पत्ते उड़ जाते हैं और पुराने महल गिर कर चकनाचूर हो जाते हैं। रीतिकाल वीर काव्यों से यह संकेत अवश्य मिलता है कि कविगण वीरता के कुछ सही आलंबनों की खोज कर रहे थे; किन्तु दुर्भाग्यवश वे जिस काल के कवि थे, वह शारीरिक हलचल का काल था और हम्मीर-जैसे वैयक्तिक वीर को ही अपनी अभिव्यक्ति का यथेष्ट माध्यम मानकर कवियों ने अपने कत्र्तव्य की इतिश्री मान ली। उनका उद्देश्य वीर रस की व्यंजना से सुयश प्राप्त करना था, विशाल देश अथवा हिन्दू जाति को जगाना नहीं।

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