हम असंतोषी जनम-जनम के (व्यंग्य) : मनुष्य के व्यवहार की दिशा बदली जा सकती है और मनुष्य के चरित्र की अधोमुखी प्रवृत्ति को ऊोमुखी बनाया जा सकता है। मैं इसके लिए एक ऐसा टीका या इंजेक्शन तैयार करने की सोच रहा हूँ जिसे लगाने के बाद आदमी संकुचित स्वार्थ के स्थान पर सार्वजनिक हित में सोचने लगेगा और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होकर सच्चरित्र और ईमानदार बन जाएगा।
टीका सदाचार का !!!
जितना बड़ा आदमी होता है, वह उतना ही लेटलतीफ होता है। सैंकड़ों लोग उसका इन्तजार करने में अपने करोड़ों घंटें ऐसे महानुभाव को श्रद्धांजलिस्वरूप भेंट कर देते हैं, तब जाकर उनके बड़प्पन का कमल खिलता है।
बड़प्पन और लेटलतीफी !!!
जो आदमी जितना संतुष्ट होता है समझ लो वह उतना ही काहिल और आलसी किस्म का आदमी होता है। कौनसी व्यवस्था ऐसी है जिसमें छिद्र नहीं होते ? चूँकि आप उस व्यवस्था में कोई सुधार लाना नहीं चाहते इसलिए उससे समझौता करते हुए – ‘ठीक है, चलेगा,’ वाली नीति का अनुसरण करने लगते हैं। यदि आपने दोष बताने शुरू किए तो दोषों का मार्जन करने का दायित्व भी तो आप पर आ पड़ता है। इसीलिए कहा गया है असंतोष पालने के लिए दिल-गुर्दे की आवश्यकता होती है।
हम असंतोषी जनम-जनम के !!!
मुफ्तखोरों का पूरा व्यक्तित्व एक अजीब से आत्मविश्वास से सराबोर रहता है। उन्हें अपने कार्यकलापों पर सदैव गर्व रहता है।
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