राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल | Rajasthani Sahitya ka Madhyakal

Language: Hindi

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ष्राजस्थानी साहित्य के मध्यकाल का समय 16 वीं शताब्दी के अन्तिम समय से लेकर 19 वीं शताब्दी तक माना गया है। यह काल परिमाण एवं स्तर दोनों दृष्ष्टियों से बड़े महत्व का है। राजस्थानी साहित्य के इतिहास में इसे स्वर्ण काल की संज्ञा निःसंकोच दी जा सकती है। इस काल में जहां वीर एवं श्रंृगार रसात्मक काव्यधाराएं अविरल गति से बहती रही है वहीं भक्ति साहित्य की धारा भी अबाध-गति से आगे बढ़ती रही। राजस्थानी साहित्य की इस त्रिवेणी की साक्षी यहां के सर्वश्रेष्ष्ठ ग्रंथ ‘वेलि क्रिसन रूकमणि री’ में देखने को मिलता है, जो इस काल का प्रतिनिधि काव्य-ग्रंथ कहा जा सकता है। इधर उत्तरी भारत में भक्ति की जो लहर उमड़ी उसने राजस्थान को भी आप्लावित कर दिया। निर्गुण तथा सगुण दोनों ही मतों के अनुयायियों ने राजस्थानी में असंख्य छंदों में भक्तिपरक साहित्य की रचना की। निर्गुण सम्प्रदाय में जहाँ कबीर का स्वर सबसे ऊपर सुनाई पड़ता था वहीं सगुण में मीरां की मृदु वाणी भक्तों के हृदय में गहरी उतर चुकी थी। निर्गुण सम्प्रदायों में नाथ सम्प्रदाय का भी प्राचीन काल से ही यहाँ अच्छा प्रचलन था। जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के समय में तो नाथों का महत्व मारवाड़ में अत्यधिक बढ़ गया था। इसके अतिरिक्त जसनाथी, दादूपंथी, निरंजनी, रामस्नेही चरणदासी, लालदासी, विश्नोई आदि अनेक सम्प्रदायों के सन्तों ने अपना ज्ञान वाणियों के माध्यम से प्रकट किया। सगुण भक्ति के अन्तर्गत राम और कृष्ष्ण सम्बन्धी विपुल साहित्य यहाँ के भक्तों ने रचा है। कृष्ष्ण भक्तों में मीरां का स्थान सर्वोपरि है, इनके अतिरिक्त चन्द्रसखी, बख्तावर, सम्मानबाई, रणछोडकुंवरी, राणी बांकावती सुन्दर कुंवरी आदि कवयित्रियों ने सरल भाष्षा के माध्यम से सरल भाष्षा के माध्यम से सरल पदों की रचना की। स्व. डा. नारायणसिंह भाटी द्वारा सम्पादित ‘परम्परा’ के इस संयुक्तांक में मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य का विस्तृत विवेचन किया गया है। मध्यकालीन राजस्थानी भक्ति साहित्य, जैन साहित्य, दोहा साहित्य, वेलि साहित्य, लोक-साहित्य, डिंगल गीत साहित्य, ख्यात साहित्य आदि निबन्धों के माध्यम से इस विष्षय पर विचार किया गया है। निष्ष्कष्र्षतः कहा जा सकता है कि राजस्थान साहित्य के मध्यकाल में सृजित वीर रसात्मक, श्रंृगार रसात्मक और भक्तिपरक साहित्य के अतिरिक्त गद्य, अनुवादित साहित्य और लोक-साहित्य पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए उक्त विशेष्षांक अत्यन्त महत्वपूर्ण है।ष्

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