महाराणा प्रताप महान् : जीवनवृत्त एवं कृतित्व : मेवाड़ और मुगल साम्राज्य के मध्य सुलह-वार्ता भंग होने के लिये राणा प्रताप दोषी नहीं थे। वह एक ऐसे समझौते के लिये तैयार थे, जिससे मेवाड़ की आंतरिक स्वतंत्रता, उसकी विशिष्ट सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पहचान और उसकी परम्परागत मर्यादा एवं गौरव की रक्षा हो सके। किन्तु शहंशाह अकबर को अपने बल का अहंकार, प्रताप के संपूर्ण समर्पण के लिये उसका हठ, उसकी निरंकुश मनोवृत्ति और साम्राज्य विस्तार की लिप्सा ऐसे समझौते में बाधक बनी।
“प्रताप ने प्रारम्भ से ही आश्वासन देने और युद्ध टालने की नीति का सहारा लिया। अकबर के ‘सुलह प्रयासों’ के पीछे उसकी ‘उदारता’ नहीं थी, अपितु प्रताप की ‘बहाना बनाने और दिलासा देने’ की कूटनीति थी।”
“प्रताप एक धर्मदृनिरपेक्ष शासक थे। उसको ‘हिन्दूवादी’ बताना, उसको संकीर्ण हितों और मूल्यों के लिए लड़ने वाला योद्धा सिद्ध करना है, उसको बौना बनाकर महानता के उच्च शिखर से नीचे गिराना है।”
“सरसरी तौर से देखने पर प्रताप एक छोटे भू-क्षेत्र और सिसोदिया वंश के लिये लड़ने वाला योद्धा प्रतीत होता है। किन्तु उसे संघर्ष में अन्तर्निहित आदर्श और उद्देश्य सार्वभौमिक महत्त्व के थे।”
“प्रताप भारतवर्ष की प्रधान तात्विक भावना (Elemental Spirit) के प्रतीक हैं, जो भावना देश के परंपरागत गौरव पर आंच लाने वाली हर बात के विरुद्ध संघर्ष करती है।”
“इस काल में साम्राज्यी शक्ति की विशालता और वैभवशालिता (Teporal Power) में यदि अकबर का कोई सानी नहीं था, तो चारित्रिक उज्ज्वलता और नैतिक आदर्शों की उच्चता (Spiritual Qualities) में प्रताप के समकक्ष कोई नहीं हुआ।”
दिवेर का युद्ध (1581 ई.) राणा प्रताप के तीन वर्ष संकट से उबरने और भावी सफलताओं की ओर बढ़ने की परिवर्तनकारी बिन्दु (Turning Point) हैं।
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