पाठालोचन का परिचयात्मक इतिहास
(Introductory History of Textual Criticism) Pathalochan Ka Parichayatmak Itihas
पाठालोचन शब्द पाठ तथा आलोचन शब्द से निर्मित है जो एक साहित्यिक आलोचना की पद्धति है। जिसके अन्तर्गत समीक्षक समीक्षा ग्रंथ के पाठ ( Text) के विश्लेषण पर ही सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करता है वह सैद्धान्तिक पक्ष एवं निर्णयों से अपना ध्यान हटा लेता है उसका ध्यान शब्द विधान, बिम्ब विधान, छंद विधान, रूपक विधान एवं भाषा विषयक होता है। आलोचक पाठ की विवक्षा एवं सिसृक्षा का अवलोकन करता है। Pathalochan Ka Parichayatmak Itihas
वामन शिवराम आप्टे संस्कृत – हिन्दी कोश के अनुसार – ” पाठ शब्द ‘पठ+घञ् 1. प्रपठन, सस्वर पाठ, आवृति करना, 2. पढ़ना, वाचन अध्ययन, 3. वेदाध्ययन, वेद पाठ, ब्रह्मयरा ब्राह्मणों के द्वारा पाँच दैनिक यज्ञों में से एक, 4. पुस्तक का मूल पाठ स्वाध्याय, पाठ भेद, दूसरा पाठ छेदः विराम, यति- दोषः दूषित पाठ, पाठ की अशुद्धियाँ, निश्चयः किसी संदर्भ का पाठ निर्धारित करना, मंजरी – शालिनी मैना, सारिका, शाला, विद्यालय, पाठशाला, महाविद्यालय एवं विद्या मन्दिर” (1) पाठ अर्थ को द्योतित करते हैं।
‘सर्जक की मूल संवेदना का साक्षात्कार पूर्वक सर्जनात्मक पुनराख्यान ही पाठालोचन या पाठानुशीलन है।’ अगर ‘ मूल संवेदना’ का मूल पाठ एक आलोचक ने कर दिया तो फिर अन्य आलोचक को इस विषय में कहना क्या अत्युक्त है? शेष रह भी न गया तो दूसरा आलोचक क्या कहेगा? यदि कृति की मूल वर्तिनी संवेदना का पुनर्पाठ एक बार होना ही उसकी आलोचना का अन्तिम रूप हो तो पुनर्मूल्यांकन निरवकाश हो जायेगा। आलोचन की दृष्टि भेद के कारण पुनर्पाठ की संभावना नवनवोद्भूत दृष्टि भेद से मूल संवेदना के सामाजिक, मानसिक एवं प्राणिशास्त्रीय दृष्टि भेद हो सकता है मूल पाठ की संवेदना का साक्षात्कार पूर्वक सर्जनात्मक पुनर्पाठ ही पाठालोचन है।
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