मेवाड़ का समग्र इतिहास (16वीं शताब्दी के विशेष संदर्भ में) : 16वीं शताब्दी भारतीय इतिहास में उथल-पुथल की शताब्दी थी, किन्तु मेवाड़ के लिए इस शताब्दी का प्रादुर्भाव अनेक सम्भावनाओं को लेकर हुआ था। यद्यपि 14वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में मेवाड़ की शक्ति को गहरा आघात लगा तथापि यह केवल अल्पकालीन था, कारण महाराणा कुम्भा के 35 वर्षीय शासनकाल (1435 ई.-1468 ई.) में मेवाड़ ने चंहुमुखी प्रगति कर ली। परिणामस्वरूप जब विदेशी मुगल बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध (1526 ई.) में दिल्ली सुल्तान को करारी पराजय दी और भारत के अन्य क्षेत्रों पर अधिकार करने के प्रयास प्रारम्भ किये, यह सब देख उत्तर भारतीय शक्तियों में खलबली मचने लगी।
मुगल साम्राज्य की स्थापना में उन्हें अपने राज्यों का अन्त दिखाई देने लगा। ऐसी स्थिति में सभी का प्रयास एक ऐसे नेतृत्व की तलाश में था जो बाबर को खदेड़ने में प्रभावशाली हो सके। तब स्वाभाविक रूप से सब को मेवाड़ के शासक महाराणा सांगा के नेतृत्व में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। इसमें कोई संदेह नही की सांगा के नेतृत्व में अभूतपूर्व क्षमता थी। अतः वह सभी का केन्द्र बिन्दु बन गया। सभी शक्तियों ने उसके नेतृत्व में 1527ई. में खानवा का युद्ध लड़ा। संगठन को सफलता नहीं मिली। युद्ध में पराजय के परम्परागत कारणों का विवरण तो विद्धानों ने दिया है किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में अन्य नवीन कारणों की ओर भी इतिहासवेत्ताओं का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है।
खानवा में सांगा की पराजय और उसके पश्चात् उसकी मृत्यु होने पर भी बाबर मेवाड़ की ओर बढ़ने का साहस नहीं कर सका। अगले नौ दशक तक मेवाड़ बाह्य शक्ति मुगल के विरूद्ध निरन्तर संघर्षरत रहा। निसन्देह मेवाड़ भौगोलिक दृष्टि सेे सीमित होता रहा परन्तु उसकेे नैतिक एवं आध्यात्मिक बल में निरन्तर वृद्धि होती रही। धर्म, संस्कृति, स्वतंत्रता आदि की रक्षा के लिए मेवाड़ी बलिदान किस प्रकार 16वीं शताब्दी से सम्प्रति काल तक प्रेरणा स्रोत बना रहा, उसका विवरण ही ग्रंथ की प्रमुख विशेषता है। राजनीतिक घटनाक्रमों के साथ-साथ साहित्य एवं कला के विभिन्न आयामों के विकास पर भी ग्रन्थ में प्रकाश डालने का प्रयास रहा है।
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