संस्कृत व्याकरण : संप्रेषण का वाणीगत माध्यम बोली से भाषा का रूप तभी धारण कर पाता है, जब वह बोली व्याकरण के नियमों से संयुक्त हो जाए। ‘मुख व्याकरण स्मृतम्’ कह कर वेद पुरुष के मुख रूप व्याकरण की महत्ता का गान अत्यन्त प्राचीन काल से होता आया है। व्याकरण को वेदांग में सम्मिलित करके मानों इसे भी वेदमहिमा से मण्डित कर दिया गया था। भारत में संयुक्त भाषा भारतीय संस्कृति का वाहन है, किंवा भारतीय अस्मिता की पहचान है। संस्कृत भाषा के क्रमशः परिपुष्ट होते जाने पर निघण्टु तथा निरुक्त के रूप में व्याकरण का प्रारम्भ तो हो ही चुका था। लगभग पांचवीं शती ईसा.पूर्व एकअद्भुत प्रज्ञावान, व्यक्तित्व-पाणिनि-का आविर्भाव हुआ, जिसने अष्टाध्यायी की रचना करके संस्कृत को परिष्कृत शिष्ट भाषा का रूप प्रदान किया तथा आगामी समस्त भविष्य के लिए इस भाषा को सुगम बना दिया। संस्कृत व्याकरण पर उपलब्ध अनेक पुस्तकों के मध्य इस पुस्तक की निजी पहचान है :-
- व्याकरण की कठिनता का सरल, सुगमरूप में प्रस्तुतीकरण;
- सन्धि एवं समास उदाहरणों का प्राचुर्य;
- मुख्य शब्द रूपों की सिद्धि;
- कृदन्त एवं तद्धित शब्द बनाते समय मुख्य सुत्रों के उदाहरणों में जुड़ने वाले अन्य सूत्रों का वहीं पर उल्लेख;
- छन्दों में उदाहरण बाहुल्य;
- अनुवाद सौकर्य की दृष्टि से हिन्दी शब्दों में संस्कृत रूपों की वर्गानुसार सूची;
- विभिन्न विश्वविद्यालयों की बी.ए. परीक्षा के पाठ्यक्रम की अनुकूलता।
Reviews
There are no reviews yet.