रचना-प्रक्रिया विमर्श : पाठक रचना का आस्वाद लेता है, किन्तु उसके निर्माण की प्रक्रिया से रचनाकार जूझता है। रचना मंच है और उसके बनने की प्रक्रिया उसका नैपथ्य है। नैपथ्य न हो तो मंच में कोई कृति साकार नहीं हो सकती। नैपथ्य की यह रचनात्मक कार्यवाही, रचना के जन्म, अभिव्यक्ति या प्रस्तुति की प्रक्रिया ही मौटे तौर पर रचना-प्रक्रिया कही जा सकती है। किन्तु इसे समझना और परिभाषित करना रचनाकारों के लिए हर काल में टेढ़ी खीर बना रहा है। मुक्तिबोध ने “एक साहित्यिक की डायरी” में इसे तीन क्षणों में बाँधने और देखने की बहुत हद तक एक सफल कोशिश की है।
समकालीन परिदृश्य में यह जोखिम उठाया है डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया ने। उक्त कृति को साकार रूप प्रदान करने में इन्होंने कोई ‘शार्टकट’ नहीं अपनाया है, जैसे ‘किसी लेखक का रचना संसार’ मार्ग न चुनकर, वे पश्चिम और पूर्व, प्राचीन और आधुनिक परिदृश्य में काव्य की रचना-प्रक्रिया को एक बड़े फलक में विवेचित करने का साहस दिखाते हैं। इस दृष्टि से यह, इस दिशा में अब तक किये गये प्रयासों में एक अद्यतन कड़ी है। महत्त्वपूर्ण हिन्दी कवियों और आलोचकों के साक्षात्कार द्वारा भी इस प्रक्रिया को समझने का प्रयास तो किया गया ही है साथ ही कतिपय हिन्दी कवियों के रचनालोक से गुजरकर इस प्रक्रिया के साक्ष्य को ढूँढ़ने की रचनात्मक कोशिश यहाँ की गई है। इस तरह इस कृति में शास्त्रीय-चिंतन के साथ-साथ गजब की समकालीनता का समिश्रण हो गया है, जो पाठक के आस्वाद और आकर्षण को बढ़ाता है।
निःसंदेह डॉ. हरदेनिया का यह काम महत्त्व का है जो भविष्य में आने वाले शोधार्थियों और लेखकों का ध्यान भी इस दिशा में आकृष्ट करता रहेगा। हिन्दी आलोचना में ऐसी श्रम साध्य और समय साध्य कृति का पर्याप्त स्वागत होगा, ऐसी उम्मीद की ही जानी चाहिए।
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