राजस्थान की कुलदेवियां : ईश्वर के प्रति प्रेम अथवा भक्ति के स्वरूप का भाषा के द्वारा बखान करना बड़ा कठिन मार्ग है। उपासना एवं पूजा ऐसे ही तत्त्व की हो सकती है, जिसे परम रूप में पूर्ण समझा जा सके। ईश्वर विनम्र है, यही कारण है कि भक्त अपने को सर्वथा ईश्वर की दया के ऊपर छोड़ देता है। नारद सूत्र में भक्ति के विभिन्न प्रकार मिलते हैं। सच्ची भक्ति निःस्वार्थ आचरण के द्वारा प्रकट होती है। भक्त की श्रद्धा एवं विश्वास भक्ति का मूल आधार कहा जा सकता है। इसी रूप में कुलदेवियों की परम्परागत पूजा-अर्चना अलग-अलग वंशधरों में पूजीत हो रही है जो कुल की रक्षा करने का दायित्व ग्रहण करती है। प्रस्तुत पुस्तक में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि चारों / वर्णो की कुलदेवियों पर प्रकाश डाला गया है। देवी से प्राप्त ज्ञान अर्जन, उनके प्रति रीति-रिवाज एवं परम्पराओं का बोध कराने में यह ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध होगा।
सामान्य अर्थो में कुलदेवी व इष्टदेवी की पूजा-अर्चना अलग-अलग रूपों में की जाती है। हमारा समाज परम्परावादी है। कुल परम्परा को प्रायः समाज के हर वर्ग का हर परिवार मानता है। मानता ही नहीं वरन् परम्परा पर आचरण भी करता है। इसलिये कुलदेवी और इष्टदेवी प्रायः वही होती है जिसकी आराधना कुल परम्परा से चलती आ रही है। परन्तु कभी-कभी ये भिन्न भी हो जाती है, जो अपवाद स्वरूप मानी जाती है। जैसे राठौड़ों की परम्परागत कुल देवी नागणेचिया माता जी है परन्तु इष्टदेवी के रूप में चामुण्डा माता जी को माना जाता है। इस बारे में विद्वानों ने कई प्रकार के विश्लेषण किये है।
वस्तुतः ये हैं तो देवी के अलग-अलग रूप परन्तु परिवार के किसी सदस्य को परिस्थितिवश या घटनावश देवी के कोई रूप विशेष की आराधना करके आशीर्वाद या फल प्राप्ति अथवा कोई विशेष सिद्धि प्राप्त हो जाती है तो देवी के उस रूप के प्रति उसकी विशेष श्रद्धा तथा विशेष विश्वास में दृढ़ता आ जाती है और वह उसकी इष्टदेवी हो जाती है। इष्ट तथा अभीष्ट का अर्थ है – चाहा हुआ मिलना। अतः मनवांछित फल की प्राप्ति जिस देवी की आराधना से होती है वही इष्ट देवी हो जाती है।
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