हम पक्षी वन उपवन के : पक्षी चहचहाते हैं। फूल खिलते हैं। ऐसे मनोरम माहौल से ही तो महकता है, यह जीवन। सोचिए पक्षी यदि न गाएं, भंवरे गर न गुनगुनाएं तो क्या हम जीवन रस की कल्पना कर सकते है! रग-बिरगें पक्षियों की चहचहाहट से ही तो आप-हममें बसती है प्रकृति। कोयल कूकती है, चिड़िया चहचहाती है, तो औचक तन-मन झंकृत हो जाता है। प्रकृति के पोषक है, हमारे ये पक्षी। पारिस्थितिकी संतुलन के संवाहक। पक्षी हैं तभी तो है क्षितिज इतना सुन्दर और सुरम्यं। सुदूर आकाश में उड़ान भरते इन परिन्दों की परवाज और इनका कर्णप्रिय कलरव सहसा सभी को आकर्षि करता है। डॉ. कैलाश सैनी की पुस्तक ‘हम पक्षी वन-उपवन के’ पढ़ते मन पक्षी बन उड़ने को करता है। डॉ. सैनी के पक्षी जगत से गहरे सरोकार रहे हैं। ये पक्षियों के जीवन, उनकी संवेदना और उनकी क्रीड़ाओं के साक्षी ही नहीं रहे बल्कि गहरे तक उनमें रमे और बसे हैं। पुस्तक पढ़ते हुए यह अहसास भी बार-बार होता है कि उन्होंने घंटों एकान्त से पक्षियों को निहारा ही नहीं बल्कि उन्हें सुना और गुना भी है।
डॉ. सैनी की इस पुस्तक से पक्षियों के बारे में स्वयं पक्षियों से ही कहलवाने की उन्होंने शैली, पक्षियों के अन्तर्मन की संवेदना से जुड़े चितराम की सरस व्यंजना अभिव्यक्त होती है, जो अनायास ही पक्षी विज्ञान से जैसे हेत करा देती है। पुस्तक को पढ़ने पर लगता है, डाॅ. सैनी ने पक्षियों को चहचहाते ही नहीं सुना है बल्कि उन्हें कुछ कहते, बतियाते निरन्तर उनसे संवाद किया है और हां, उनके मनोजगत ने भी पक्षी गहरे से उतरे है। ‘हम पक्षी वन-उपवन के’ इसी की परिणति है। आइए, सुने पक्षियों ने जो कहा है।
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